Sunday, July 27, 2025

चिंतन मनन

बहू
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सर्दी बढ़ती जा रही थी। सरिता जी कई दिनों से गोंद के लड्डू बनाने की सोच रही थीं। अभी आटा भूनकर चुकी ही थीं कि डोरबेल बजी। दरवाजा खोला तो उनकी पड़ोसन थीं। घर में प्रवेश करते ही पड़ोसन आशा जी ने कहा,
‘घी की खुशबू से घर महक रहा है।’
‘हां, गोंद के लड्डू बना रही हूं। सर्दी में खाने ही चाहिए।’ सरिता जी ने कहा।
आशा जी रसोई में ही पहुंच गई थीं, बोलीं, ‘अरे! इतना आटा और गोंद। इससे तो 2 किलो बन जाएंगे। आप दोनों के लिए बहुत ज्यादा हैं। पड़ोस में बांटने हैं क्या?
‘हां, ज्यादा हैं, पर दोनों बेटों के घर भेज दूंगी। दोनों बहुओं कौ नौकरी में फुर्सत कहां मिलती है ?….. फिर मुझे तो सारा सामान इकट्ठा करना ही है, थोड़ा ज्यादा सही। जब तक बना सकते हैं, बच्चों को बनाकर खिलाते रहें। बड़ा संतोष मिलता है।
मेरी बहुएं तो कहती हैं कि आप खिला रही हो तो घर की गुझिया, मठरी, गोंद और तिल के लड्डू और अनेक तरह के अचार सब स्वाद से खा रहे हैं। हम लोग तो रोज का खाना बनाने में ही थक जाते हैं।
आशाजी अपनी बहुओं की शिकायत करके मन हल्का करने आई थीं, लेकिन यहां तो उल्टी गंगा बह रही थी। वे तो अपनी बहुओं से आशा करती थीं कि अब वे आएं तो कुछ बना कर लाएं। उन्हें समझ में आ गया कि क्यों उनकी बहुएं ससुराल आने से बचती हैं। अभी तो उनकी उम्र ही क्या है, जो वे बहुओं से सेवा की अपेक्षा करने लगीं। उन्हें सबक मिल गया था कि मां के हाथ के व्यंजन बेटे-बहू के जीवन में ही नहीं, रिश्तों में भी रस घोल देते हैं। उन्होंने भी निश्चय किया कि वे भी सरिता जी की तरह अपने परिवार में प्यार और खुशियों का अमृत ही बांटेंगी, शिकायतों का जहर नहीं। आखिर इतना तो वे भी कर ही सकती हैं… पर कभी सोचा ही नहीं।
प्रत्येक परिवार में ऐसी परिस्थिति बनती ही है लेकिन कुछ इन परिस्थितियों में बहूओ का साथ देते है,उनके सुख दुख में साथ देते है।इतना करने से ही परिवार में खुशियों का माहौल बन जाता है।

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