Monday, December 8, 2025

चिंतन- मनन

महर्षि नारद को सघन छाया वाले सेमर वृक्ष की छाया में विश्राम करने से बहुत आनंद प्राप्त हुआ। उन्होंने वृक्ष के वैभव की भूरि- भूरि प्रशंसा की और पूछा- वृक्षराज! तुम्हारा इतना बड़ा वैभव किस प्रकार सुस्थिर रहता है ? पवन तुम्हें गिराता क्यों नहीं?

सेमर वृक्ष ने हंसते हुए कहा- भगवान! बेचारे पवन की क्या सामर्थ है कि मुझे गिरा सके!
नारद जी को सेमर का अभिमान ठीक नहीं लगा और उन्होंने स्वर्ग लोक जाकर, पवनदेव से कहा- अमुक वृक्ष,अभिमान पूर्वक आपकी निंदा करता है, उसका अभिमान दूर करना चाहिए।
पवन को अपनी निंदा पर क्रोध आया और वृक्ष को उखाड़ फेंकने के लिए प्रबल आंधी तूफान बन कर चल दिए।

सेमर का वृक्ष बड़ा तपस्वी, परोपकारी और ज्ञानी था। उसे भावी संकट की पूर्व सूचना मिल गई । वृक्ष ने अपने बचने का तुरंत उपाय कर लिया। उसने अपने सारे पत्ते झड़ा डालें और ठूंट की तरह खड़ा हो गया। पवन के सारे प्रयास व्यर्थ हो गए,और अंततः निराश होकर लौट जाना पड़ा।

कुछ दिन पश्चात नारद जी उस वृक्ष का परिणाम देखने के लिए पुनः पहुंचे। देखा-वृक्ष ज्यों का त्यों, हरा भरा खड़ा है। नारद जी को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने सेमर से पूछा- “पवन ने सारी शक्ति के साथ तुम्हें उखाड़ने की चेष्टा की थी,पर तुम तो अभी तक ज्यों के त्यों खड़े हो, इसका क्या रहस्य है?”

वृक्ष ने नारदजी को प्रणाम किया और विनम्रता पूर्वक बोला- “ऋषिराज! मेरे पास इतना वैभव है,पर मैं इसके मोह में बंधा हुआ नहीं हूं । संसार की सेवा के लिए इतने पत्तों को धारण किए हूँ, परंतु जब जरूरत समझता हूं, इस सारे वैभव को बिना किसी हिचकिचाहट के त्याग देता हूं और ठूंट बन जाता हूं। मुझे वैभव का गर्व नहीं था,वरन अपने ठूंठ होने का अभिमान था,इसलिए मैंने पवन की अपेक्षा अपनी सामर्थ्य को अधिक बताया था। आप देख रहे हैं कि उसी निर्लिप्त कर्मयोग के कारण में पवन की प्रचंड टक्कर सहकर भी पूर्ववत खड़ा हूं।”

नारद जी समझ गए कि संसार में वैभव रखना, धनवान होना,कोई बुरी बात नहीं है। इससे तो बहुत से शुभ कार्य हो सकते हैं। बुराई तो धन के अभिमान में डूब जाने और उससे मोह करने में है। यदि कोई व्यक्ति धनी होते हुए भी मन से पवित्र रहे तो वह एक प्रकार का साधु ही है। ऐसे जल में कमल की तरह निर्लिप्त रहने वाले कर्मयोगी साधु के लिए,घर ही तपोभूमि है।

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