*हम सभी अपने जीवन में अक्सर गलतियां करते ही हैं। इसलिए तो यह कहा जाता है कि मनुष्य गलतियों का एक पुतला है। चाहे कोई भी गलती हो, किसी की भी गलती हो, हम दोष तो दूसरों को ही देते हैं। दूसरों को ही दोष देना हमारा स्वभाव होता है। यदि हम गिर जाएं तो पत्थर को दोष देते हैं, डूब जाएं तो पानी को दोष, जल जाएं तो आग को दोष। और तो और यदि हम कुछ न कर पाएं तो भाग्य को ही दोष देने लग जाते हैं।*
*भाग्य को दोष देते समय हम ये कभी नहीं सोचते कि हमने ही कहीं ना कहीं इसके बीज़ बोए हैं। दरअसल हम स्वयं ही औरों में गुण दोष ढूंढते रहते हैं और अपने गिरेबान में कभी झांक कर नहीं देखते। जो समय हम औरों के गुण दोष गिनाने में लगाते हैं, वही समय यदि हम अपने को और बेहतर बनाने में लगा लें तो हमारे साथ-साथ सारी दुनिया ही बदल जाए।*
*लेकिन हम अपने दोषों पर सौ-सौ पर्दे डाल देते हैं और कहते हैं कि ज़माना ही खराब है। दूसरों को दोष देने का सीधा सा अर्थ यह है कि हममें स्वयं की गलतियों को स्वीकार करने की सामर्थ्य नहीं होना। इतना ही नहीं, इसका मतलब यह भी है कि स्वयं में सुधार की भावी संभावनाओं को स्वयं अपने ही हाथों से नष्ट कर देना।*
*हमें इन सभी बातों से बचना चाहिए, क्योंकि एक ना एक दिन हमारे स्वयं के दोष ही हमें डुबो देते हैं। स्वयं के जीवन में दोष होने से भी ज्यादा घातक है, दूसरों को दोष देना। इसलिए हमें कभी भी किसी को दोष नहीं देना चाहिए।*


