Thursday, September 19, 2024

कोलकाता रेप-मर्डर, राष्ट्रपति बोलीं- बस बहुत हुआ:मैं निराश और डरी हुई हूं, ऐसी घटनाओं को भूल जाना समाज की खराब आदत

कोलकाता में ट्रेनी डॉक्टर से रेप-मर्डर केस के 20 दिन बाद राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का पहला बयान आया है। उन्होंने कहा, “मैं घटना को लेकर निराश और डरी हुई हूं। अब बहुत हो चुका। समाज को ऐसी घटनाओं को भूलने की खराब आदत है।”

राष्ट्रपति मुर्मू ने ‘विमेंस सेफ्टी: एनफ इज एनफ’ नाम से एक आर्टिकल लिखा था, जिस पर उन्होंने मंगलवार (27 अगस्त) को PTI के एडिटर्स से चर्चा की। उन्होंने कहा कि कोई भी सभ्य समाज अपनी बेटियों और बहनों पर इस तरह के अत्याचारों की इजाजत नहीं दे सकता।

कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में 8-9 अगस्त की रात 31 साल की ट्रेनी डॉक्टर का रेप-मर्डर हुआ था। उनका शव सेमिनार हॉल में मिला था। उनकी गर्दन टूटी हुई थी। मुंह, आंखों और प्राइवेट पार्ट्स से खून बह रहा था।

राष्ट्रपति ने लिखा- कोलकाता में हुई डॉक्टर के रेप और मर्डर की घटना से देश सकते में है। जब मैंने इसके बारे में सुना तो मैं निराश और भयभीत हुई। ज्यादा दुखद बात यह है कि यह घटना अकेली घटना नहीं है। यह महिलाओं के खिलाफ अपराध का एक हिस्सा है।

जब स्टूडेंट्स, डॉक्टर्स और नागरिक कोलकाता में प्रोटेस्ट कर रहे थे, तो अपराधी दूसरी जगहों पर शिकार खोज रहे थे। विक्टिम में किंडरगार्टन की बच्चियां तक शामिल थीं। कोई भी सभ्य समाज अपनी बेटियों और बहनों पर इस तरह के अत्याचारों की इजाजत नहीं दे सकता। देश के लोगों का गुस्सा जायज है, मैं भी गुस्से में हूं।पिछले साल महिला दिवस के मौके पर मैंने एक न्यूजपेपर आर्टिकल के जरिए अपने विचार और उम्मीदें साझा की थीं। महिलाओं को सशक्त करने की हमारी पिछली उपलब्धियों को लेकर मैं सकारात्मक हूं। मैं खुद को भारत में महिला सशक्तिकरण की इस शानदार यात्रा का एक उदाहरण मानती हूं, लेकिन जब भी मैं देश के किसी कोने में महिलाओं के खिलाफ अपराधों के बारे में सुनती हूं तो मुझे गहरी पीड़ा होती है।

मैंने रक्षाबंधन पर स्कूल के बच्चों से मुलाकात की थी। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या हम उन्हें भरोसा दिला सकते हैं कि निर्भया जैसे केस अब नहीं होंगे। मैंने उन्हें बताया कि हर नागरिक की रक्षा करना राष्ट्र की जिम्मेदारी है, लेकिन साथ ही सेल्फ-डिफेंस और मार्शल आर्ट्स में ट्रेनिंग लेना सभी के लिए जरूरी है, खासतौर से लड़कियों के लिए, ताकि वे और ताकतवर हो सकें।

लेकिन यह महिलाओं की सुरक्षा की गारंटी नहीं है, क्योंकि महिलाओं की सुरक्षा कई कारणों से प्रभावित होती है। जाहिर सी बात है कि इस सवाल का पूरा जवाब सिर्फ हमारे समाज से आ सकता है। समाज को ईमानदारी, निष्पक्षता के साथ आत्म-विश्लेषण करने की आवश्यकता है।

समाज को खुद के अंदर झांकना होगा और मुश्किल सवाल पूछने होंगे। हमसे कहां गलती हुई? इन गलतियों को दूर करने के लिए हम क्या कर सकते हैं? इन सवालों का जवाब ढूंढ़े बिना, आधी आबादी उतनी आजादी से नहीं जी पा

हमारे संविधान ने महिलाओं समेत सभी लोगों को तब बराबरी का अधिकार दिया तब दुनिया के कई हिस्सों में यह सिर्फ एक काल्पनिक बात थी। इसके बाद राष्ट्र ने ऐसे इंस्टीट्यूशंस बनाए जो इस बराबरी को हर उस जगह लागू कर सके, जहां इसकी जरूरत है और कई स्कीम और पहलों के जरिए इसे बढ़ावा दे सकें।

सिविल सोसाइटी भी आगे आईं और इस दिशा में राष्ट्र की कोशिशों में मदद की। दूरदर्शी लीडर्स ने समाज के हर क्षेत्र में लैंगिक समानता को बढ़ावा दिया। आखिरकार कई अद्भुत और जुझारू महिलाओं की वजह से कम भाग्यशाली महिलाओं के लिए यह संभव हुआ कि वे इस सामाजिक क्रांति का लाभ उठा सकें। महिला सशक्तिकरण की यह कहानी रही है।

लेकिन महिला सशक्तिकरण के रास्ते में कम रुकावटें नहीं आई हैं। महिलाओं ने हर एक इंच जमीन जीतने के लिए लड़ाई लड़ी है। सामाजिक धारणाओं और कई परंपराओं और प्रथाओं ने महिलाओं के अधिकारों को बढ़ने से रोका है। यह एक घटिया सोच है जो महिलाओं को कम समझती है।

मैं इस सोच को पुरुषों की सोच नहीं कहूंगी क्योंकि इसका व्यक्ति के जेंडर से कोई लेना-देना नहीं है। ऐसे कई पुरुष हैं, जो ऐसी घटिया सोच नहीं रखते हैं। यह सोच रखने वाले लोग महिलाओं को अपने से कम समझते हैं। वे महिलाओं को कम शक्तिशाली, कम सक्षम, कम बुद्धिमान के रूप में देखते हैं। जो ऐसे विचार रखते हैं, वे महिलाओं को सामान की तरह देखते हैं।

उन्होंने कहा कि कुछ लोग महिलाओं को उपभोग की वस्तु की तरह देखते हैं। यही महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराधों की वजह है। ऐसे लोगों के दिमाग में महिलाओं को लेकर यह सोच गहरी हो चुकी है। अफसोस की बात यह है कि ऐसा सिर्फ भारत में नहीं है, बल्कि दुनियाभर में ऐसा ही है। बस कहीं पर ऐसे अपराध ज्यादा हैं, कहीं कम।

राष्ट्र और समाज का काम है कि इस सोच के खिलाफ खड़े हों। भारत में राष्ट्र और समाज मिलकर कई साल से इस दिशा में काम करते आ रहे हैं। रेप रोकने के लिए कानून बने हैं और सोशल कैंपेन भी चलाए गए हैं। हालांकि फिर भी कोई न कोई चीज हमारे रास्ते में आ जाती है और हमें परेशान करती है।

दिसंबर 2012 में एक लड़की का गैंग-रेप और मर्डर हुआ था। लोगों में गुस्सा और हैरानगी थी। हमने तय किया था कि दूसरी निर्भया के साथ ऐसा हादसा नहीं होने देंगे। निर्भया कांड से गुस्साए समाज ने कई प्लान और स्ट्रैटजी बनाईं और इन कोशिशों से कुछ फर्क भी पड़ा, लेकिन हमारा काम तब तक अधूरा रहेगा, जब तक एक भी महिला अपने रहने या काम करने की जगह पर असुरक्षित महसूस करेगी।

लेकिन तब से 12 साल हो गए हैं और इस बीच ऐसी अनगिनत घटनाएं हुई हैं, लेकिन कुछ घटनाएं ही देश की नजरों में आई हैं। इन्हें भी जल्द ही भुला दिया गया। क्या हमने अपना सबक सीखा? जैसे ही सामाजिक विरोध खत्म हुआ, ये घटनाएं भी समाज की याद्दाश्त के गहरे कोने में दब गईं। जो सिर्फ तब सामने आती हैं, जब ऐसा ही कोई दूसरा घृणित अपराध होता है।

सामूहिक रूप से भूलने की यह बीमारी, महिलाओं के खिलाफ घटिया सोच से भी ज्यादा घिनौनी है। इतिहास अक्सर तकलीफ देता है। इतिहास का सामना करने से डरने वाला समाज ही चीजों को भूलने का सहारा लेता है। समाज शुतुरमुर्ग की तरह रेत में अपना सिर छिपा लेता है। अब समय आ गया है कि भारत अपने इतिहास का पूरी तरह से सामना करे।

हमें ऐसे अपराधों को भूलना नहीं चाहिए। हमें मिलकर इस आपराधिक सोच का सामना करने की जरूरत है, ताकि इसे शुरुआत में ही खत्म कर दिया जाए। हम ऐसा तभी कर पाएंगे, जब हम पीड़ितों की याद को सम्मान देंगे। समाज पीड़ितों को याद करने की एक संस्कृति तैयार करें ताकि हमें याद रहे कि हम कहां चूके थे और इसे याद रखकर हम भविष्य में चौकन्ने रहें।

हमारी बच्चियों के प्रति यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम उनके रास्तों से बाधाएं हटाएं और उन्हें आजादी दिलाने में मदद करें। तभी हम रक्षाबंधन पर पूछे गए बच्चों के मासूम सवाल का ठोस जवाब दे पाएंगे। हमें मिलकर कहना होगा- बस बहुत हुआ।

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